Sunday 31 December 2017


ज़िंदगी, उम्र नहीं होती 
उम्र में वक़्त की मिलावट है 
महीनों, सालों, दशकों की दिखावट है 
उम्र में 
अच्छे और बुरे का 
हिसाब रखना पड़ता है 
जितने किलो हराम 
उतना सवाब रखना पड़ता है 
कामयाबी और नाकामयाबी पलड़ों में रखी रहती हैं 
ज़माने भर की निगाहें काँटे पर अटकी रहती हैं 
कौन सा पलड़ा भारी रहा 
और कौन सा पलड़ा टूट गया 
साजों सामाँ क्या जमा किया 
और कितना तुमसे छूट गया 
 चाहत, ख़्वाबों, रिश्तों के कुछ नियम निभाने होते हैं 
 हवा में लिखे हुए कुछ अंक बढ़ाने होते हैं 
उम्र नाम है गिनती का 
जो शुरू हुई और ख़त्म हुई 
आँकी जाए जो अंकों में 
 क्या शुरू हुई, क्या ख़त्म हुई

पर है जो परे हिसाबों से 
जिरह की किताबों से 
जहाँ ग़म भी बेशुमार है 
और प्यार भी आधार है 

ज़ुबान ...


P.S :-    ये कविता लिखते हुए मैं बीच में ही उठ गया। वापस लौटा तो भूल चुका था कि क्या लिख रहा था। तो ये अधूरी ही रह गई ... फिर इसे मैं कभी पूरा नहीं कर पाया ...