Wednesday 15 February 2012

आँगन में बैठी थोड़ी सी धूप



मेरे हाथ में कुछ मिठाई थी और मै अपनी दादी के सामने खड़ा था. मैंने दादी को मिठाई दी तो दादी बहुत खुश हुई , ये ख़ुशी सामान्य से अधिक थी. मुझे ढेरों आशीर्वाद भी दिए. दादी एक छोटी सी चारपाई पर घर के आँगन में बैठी धूप सेक रही है. मै दादी के सामने बैठ गया हूँ. और दादी को ध्यान से देख रहा हूँ. ज़रा सी मिठाई से दादी इतना खुश हो गयी ! इतना खुश ? कुछ मिठाई भर ही तो है , ये तो दिन में कितनी बार दादी खा लेती है. फिर आज क्यूँ इस मिठाई ने इतनी ख़ुशी दे दी. दादी के सामने बैठा मै ये सब सोच रहा हूँ और दादी मुझे आशीर्वाद दिए जा रही है.

दादी के मुंह में अब एक भी दांत नहीं है. पिछली बार देखा था तो कुछ दांत थे. दादी के चेहरे पर अब सिर्फ दो निशान बचे हैं. वहां कभी ऑंखें रही होंगी, एक जोड़ा सुन्दर ऑंखें जिनमे खुशियाँ छलकती होंगी , आंसू आते होंगे , परेशानियाँ , उम्मीदें दिखती होंगी. अब बस दो निशान हैं. इन दो निशानों में , मै कितना धुंधला या कितना साफ़ दिखाई दे रहा हूँगा , इसका भी मै अंदाज़ा नहीं लगा सकता. लेकिन इतना जानता हूँ, कि मेरी आँखों में दादी की तस्वीर अब बदल  चुकी है. पिछली बार देखा था तो दादी का रंग सोने जैसा था. इस बार  देख रहा हूँ तो ये सुनहरी चेहरा ढल चुका है. और सर पर कुछ सफ़ेद बाल. मैंने ना जाने कब से अपने ज़हन में बनी दादी की इस तस्वीर को अपडेट नहीं किया था. आज देख रहा हूँ तो इस सुनहरी और ढले हुए चेहरे के दरमयान आया कोई पड़ाव याद नहीं आता. इस थोड़ी सी मिठाई को लेकर दादी की आवाज़ में आई ख़ुशी की वजह शायद सिर्फ इतनी है कि मै दादी के पास आया हूँ. प्यार से दादी मुझसे पूछती है कि मै कितने दिन रहूँगा. ये सवाल पिछले तीन दिन में दादी मुझसे कई बार पूछ चुकी है. मै हर बार दादी को याद दिलाता हूँ कि मै कौन हूँ और कितने दिन के लिए आया हूँ. दादी हर बार ये जान कर नयी तरह से खुश हो जाती है कि मै घर आया हूँ ,और हर बार ये जान कर दुखी हो जाती है कि मै कुछ ही दिनों में फिर से चला जाऊंगा. इस छोटी होती दुनिया में , मै और दादी इतना दूर हो गए कि ना तो दादी ने मुझे बड़े होते ठीक से देखा और ना मैंने दादी को बूढ़े होते. दादी ने अपनी कल्पनाओं में मुझे बड़ा होते देख लिया होगा , और जब भी देखा होगा ढेरों आशीर्वाद और मेरी कामयाबी के लिए दुआएं दी होंगी.

 अब भी मै कुछ ही देर में दादी के पास से उठ कर चला जाऊंगा. दादी अपने आप ही कुछ देर तक बोलती रहेगी. फिर अपने बुढापे और अकेलेपन को कोसती हुई भगवान से झगडती रहेगी. उस झगडे की आवाजें भी मेरे कानों में पड़ेंगी. लेकिन मै उठ कर वापस दादी के पास नहीं जाऊंगा. उनके और भगवान् के झगडे के बीच नहीं आऊंगा . क्यूंकि दोनों में से कोई मेरी बात समझता नहीं है. दादी के इस झगडे की आवाजें सिर्फ मेरे ही  नहीं सबके कान में जाती हैं. सब इस झगडे से परेशान हैं. सब गुस्सा करते हैं , irritate होते हैं और दादी को समझाते भी हैं. लेकिन दादी को अगर अपना बेटा याद नहीं रहता तो किसी का समझाना क्या याद रहेगा ?


तेज़ धुप से मै अन्दर आ गया हूँ. दादी वहीँ बैठी रहेगी. जाए भी कहाँ ? अपने कमरे में ? या उठ कर घर के गेट तक? लेकिन वहां से भी वापस यहीं आना है. वहां करने को कुछ नहीं है , सोचने को कुछ नहीं है. यहाँ बैठना तो एक काम है. धुप सेकना,,,,,,,,, एक काम है.


लेकिन मै जानता हूँ ये धूप ढल जाएगी. और यहाँ सिर्फ अँधेरा रह जाएगा. इस चारपाई पर बचा, थोडा सा अँधेरा.  वो अँधेरा किसी को आशीर्वाद नहीं देगा. भगवान् से झगडेगा नहीं. उस थोड़े से अँधेरे को टटोलते हुए शायद मै यही सोचूंगा , यहाँ कभी मौजूद रही रौशनी की मेरे पास कोई याद भी बाकी नहीं है.