Saturday 21 January 2017


दिल
एक गहरी खाई है
काली अंधेरी खाई
जिसमें मैं झांकने से भी डरता हूँ
चक्कर आने लगते हैं
सिर घूमने लगता है  

कुछ कहने की कोशिश करता हूँ तो गूंजती है अपनी ही आवाज़
और मुड़ कर वापस आती है कई कई बार
ख़ुद की आवाज़ कितनी डरावनी होती है
किसी तीर की तरह अंदर तक चीरते हैं जब अपने ही शब्द
तो ज़हर सरीखा भय
भीतर भरने लगता है
और कभी यूं लगता है जैसे
मैं ऊपर नहीं नीचे खड़ा हूँ
खाई की गहराई में
घिरा हुआ हूँ लाशों के ढेर से
कितने ही लोग
जिन्हें मैंने ही कभी मार कर फेंक दिया था यहाँ
ये सब ज़िंदा हैं
पहले से भी ज़्यादा डरावने हो गए हैं
इन्हें फिर से मारूं तो फेंकूंगा कहाँ ?
यहाँ सब कुछ ज़िंदा है
छिला हुआ बचपन,
हारी हुई लड़ाइयां,
मेरे चेहरे से चिपकी तमाम नाकामयाबियां
मेरे साथ हुए और मुझसे हुए सारे अपराध,
ताउम्र इकठ्ठा हुआ क्रोध
सारी घृणा ...
सब कुछ ज़िंदा है
और मैं
समझ ही नहीं पाता कि ये सब मेरे अंदर हैं या मैं खड़ा हूँ इनसे पटा हुआ
मैं उंचाई पर हूँ या गहराई में ?  
जो मैं उंचाई पर हूँ
तो मुझ तक रोशनी क्यों नहीं पहुंचती ?
जो मैं गहराई में हूँ
तो मुझे अंत क्यों नहीं दिखता ?
दिल
एक गहरी खाई है
और मैं ये भी नहीं जानता
कि मैं इस खाई के अंदर हूँ

या ये खाई मेरे अंदर है